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देखो! देश का अंधा कानून!


देखो! देश का अंधा कानून! ₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹₹(हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचाक)



20 बरसों से स्किल इंडिया महाभियान में जी-जान से जुटी हुई कौशल विकास व उघमिता मंत्रालय भारत सरकार से वित्त पोषित, प्रदेश तकनीकी शिक्षा विभाग के माध्यम से शासकीय पोलीटेक्निक कालेजों में संचालित रोजगारोन्मुखी महत्वकांक्षी सीडीटीपी योजना के कर्मचारी अनुदान के अभाव में सालों-साल वेतन से मोहताज रहते है। अगर मिल भी जाए तो राज्य सरकारों की ना- कर से भेजा गया पैसा प्रदेश के वित्त विभाग के रोढे से कोषालयों के बेहिसाब नियमों की भेट चढकर वापस सरकारों की तिजोरी की शोभा बन जाता है। दुष्परिणाम योजना चालु-बंद होने लगती है और कामगार बेघर। 
       बावजूद जिम्मेदार और जवाबदार दरियाये घोडे बेचकर सोये रहते है। बेसुध आफसरशाही व लालफिताशाही की चुगंल से जाहिर हुकमरानों का तालिबानी फरमान है कि योजना के लिए कोषालयों के द्वार  से ही संस्था को अनुदान राशि मिलेंगी सीधे संस्था के खाते में नहीं चाहे कुछ भी हो जाए। कोई भूखा मरता है तो मरे, जरूरत मंदों को हुनर मिले या ना मिले हम को उससे क्यां? हम तो लकीर के फकीर है उस पर चल के रहेंगे। आखिर ये हमारी हुकमत की शान का सवाल है।
        इतर, राजशाही सत्ता के दम पर जनता की आंख में धुल झोंकर कानून की आड. में मध्यप्रदेश के विधायकों को वेतन की सौगात स्वंय के खाते में अब सीधे मिलेंगी। इन्होंने भी इसे तपाक से हंसकर स्वीकार कर लिया। हां ! करेंगे क्यों नहीं कामगारों की फ्रिक जो नहीं है। ऐसा फैसला हालिया प्रदेश विधान सभा अध्यक्ष सीतारमन शर्मा के साथ संयुक्त बैठक में सभी दलों के नेताओं ने एक मतेन कर लिया । बताये कारणों में विधायकों को वेतन के वास्ते कई दिनों तक सरकारी दफ्तरों के लगाना पडता है। निजात पाने के इरादे से यह कदम उठाया गया है। 
       वाह! जनाब क्यां खूब खेल खेला अपनी  पारी आई तो नियमों को तोड-मरोड दिया। और दूसरों को हुकुम का गुलाम रख छोडा है। यह दोहरा मापदंड ठीक नहीं है। काश! राज्य की मजबूर प्रजा और काम के दाम से बेदखल सीडीटीपी योजना के खैवनहारों के मुफिद कोई कवायद हो जाती तो सोने पे सुहागा हो जाता।  बेहतर हुनर को शिखर की ओर जाने से कोई नहीं रोक सकता। बात एक ही वर्ग और मसले की नहीं है आज हजारों किसी ना किसी मामले में रोज बेवजह परेशान होते है । बजाए इनकी चिंता किए बैगर अपना उल्लू सीधा कर लेना एक जनप्रतिनिधी की अकलमंदी नहीं बल्कि बेवकुफी है।  खुद मां के दूजा मौसी का यह रवैया लोकतंत्र का नहीं वरन् राजतंत्र की याद दिलाता है।  
         जबकि होना यह चाहिए था की नुमांइदों को सदा कोषालयों से ही भुगतान मिलता रहे ताकि यह भी देखते और भोगते रहे  की तुगलकी आदेशों का दंश  और अंधा कानून की सजा होती क्यां है? अलबत्ता देश का यह इकलौता काला कानून नहीं जिसके वार से आम इंसान लथपथ हो ढूंढने निकलेंगे तो कोहराम मच जाएंगा। तभी तो कहा गया है संईया भये कोतवाल तो अब डर काहेका। लिहाजा, अब वक्त आ गया है उस कहावत को झुटलाने का "कोई भूखा रहकर मरता और कोई खा-खाकर।" अंततः सरकार ! मत दिखाओ ऐसा अंधा कानून की लोगों को आप और कानून पर से भरोसा उठ जाऐ।

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