सियासत: जीता नेता, हारा कार्यकर्त्ता
(हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक)
सियासत का खेल भी अजीब निराला है, परिश्रमी कार्यकर्त्ता आसन में और नेतासिंहासन में बैठते है। वह भी भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहां तंत्र
के पहरेदार लोकनीति के दुहाई देते नहीं थकते। वहां उन्हीं के सिपहसालार
दुखडा रोते दिखाई देते है कि अब हमारी पूछ-परक कम हो गई और हमारे काम
नहीं होते। उस पर जनता की तो पूछों ही मत इनका भगवान ही मालिक है। यह हाल
बना रखा है हमारे लोकतंत्र के करता धरताओं ने। बजाए ग्लानि के शान से मैं
जन सेवक और दल का छोटा सा कार्यकर्त्ता हूँ का बिगुल बजाने हरदम आगे रहते
है।
इतने पर भी दिल नहीं भरता तो सिहासी मैदान के दंगल चुनाव में मीठा-मीठा
खां, खां और कडवा-कडवा थूं’थूं की भांति जीता तो मैं और हारा तो
कार्यकर्त्ता का बेसुरा राग अलापना नहीं छोडते। जैसे वे कार्यकर्त्ता
नहीं हुए नेताओं के बंधुआ मजदूर हो ऐसे घूडकी भरे ताने मारते है नेता।
यकीन नहीं तो चुनावी नतीजे के बाद तमतमाया चेहरा देख लिजिए नेताजी का
खुदबखुद समझ आ जाएगा जीत में मगरूर और हार में कार्यकर्त्ता बेगरूर लगते
है। महानुभावों की दांवपेंची सोच के मुताबिक अच्छे में मैं-मैं और बूरे
में तूं-तूं की तर्ज पर जीता नेता, हारा कार्यकर्त्ता होता है और कुछ
नहीं। बेगर्दो का बडबोला घमंडी रवैया यह अच्छे से जानता है कि मेरी औकात
मतदाताओं के चरणों में और कार्यकर्त्ताओं के हाथों में है लेकिन बोलने से
गुरेज है।
मद्देनजर, आज की राजनीतिक व्यवस्था सिर्फ और सिर्फ सत्ता के इर्द-गिर्द
घूमती है और कुछ नहीं। सत्ता पाने के लिए सारी हदें पार की दी जाती है
क्यां दोस्त, क्यां दुश्मन सब वक्त आने पर एक थाली के चट्ठे-बट्ठे बन
जाते है। विचारधारा की तो बात ही मत करो ये तो बोलने बताने की चीज बनकर
रह गई है। नुमाईश में सरकार-सरकार का खेल खेला जाता है कभी कोई तो कभी
कोई औरों के लिए ना सही पर अपने लिए तो होते है हमारे हुकमरान आपस में
भाई-भाई। तभी तो कुर्सी का हिसाब रखते है पाई-पाई। आवाजाई के दौर में
केवल आकाओं की तस्वीर बदलती है देश की तकदीर नहीं।
खैर! इससे मतलब है भी कितने को जो बेवजह इसकी चिंता में अपने अच्छे
दिन बर्बाद कर दे। जब बिना किये धरे सब कुछ आसानी से मिल जाता है तो
हायतौबा मचाना अकलमंदी नहीं बेवकूफी भरा कदम है। इसमें हमारे नुमांईदों
का कोई शानी नहीं यहां तो महारत हासिल है लिहाजा देश भले ही विश्व गुरू
ना बन पाया हो पर राजनेता जरूर जगतगुरू बन गए है। फिर ये अपना गुरूर
क्यों ना दिखाए इन्हें तो राजनीतिक फिजा की हर नब्ज मालूम है की इलाज किस
तरीके से करना है। बस, इसी फिराक में राजगद्दी की लालसा में गुरूमंत्र
देते फिरते है कि चुनावी बाजी कैसे मारना है। मंत्रोप्ग्राही मोहरें
अर्थात् आंख मुंदे, पार्टी भक्त बेपरवाह कार्यकर्त्ता दौडते क्यां दहाडते
हुए अपने सरदार के हुकम को असरदार बनाने जी-जान से जुट जाते है।
बची-कुची कसर देश की अवाम दिमाग से नहीं बि्काड दिल से वोट देकर
पूरी कर देती है। फायदा की ताक में बैठा मौकापरस्त राजदार बिना देर किए
कमजोर नस पर चोट करते हुए संवेदना व भावनाओं से नाता जोडकर और आपस में
लडा कर सत्ता के द्वार तक पहुंचने जद्दोजहद करता है। बावजूद फतह में
खामियां लगी तो साम-दाम-दंड-भेद की कूटनीतिक पैनी धार पूरी कर देती है।
अंत में तो है जोड-तोड और आयाराम-गयाराम के रसूखदार वह किस दिन काम आएंगे
आखिर! सत्ता का मोह उन्हें भी है वह इससे कैसे अछूते रह सकते है।
इसीलिए चोर-चोर मौसरे भाई की दंत कथा सिहासतदारों में पर एकदम फीट बैठती
है।
निर्लोभ, राजनैतिक उठापठक में निष्ठावान कार्यकर्त्ताओं की गैर वाजिब
उठक-बैठक राष्ट्रवादी लोकतांत्रिक दलों के लिए घातक ना बन जाए। तरजीह दल
और दिल मिले रहे इसी सोच में टुच्ची और चीरहरणी राजनीतिक कटुता के घटाटोप
से विरक्त सत्ताद्यीशों को बडप्पन में सभी का मान, सम्मान और पहचान
राजसूत्रिय यज्ञ के खातिर कायम रखना होगा।
हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक
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