नेहरू, पटेल और गांधी ! एक दूसरे के पूरक!! नेहरु जयंती पर विशेष लेख।
देश 14 नवम्बर 2018 को चाचा नेहरू की 129 वीं ज्यंती मनायेगा।
लेकिन अफसोस एक ख़ास विचारधारा से पोषित लोग नेहरु के विशाल व्यक्तित्व, उनकी उपलब्धियों, देश और समाज के प्रति उनकी सेवाओं को नकारने पर आमादा हैं। बल्कि उनका चरित्रहनन कर उनके और उनके परिवार के मज़हब पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं। क्या यही भारतीय संस्कृति है?
इन तीनों महान हस्तियों को एक-दूसरे के ख़िलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहे लोगों को एक बार साबरमती आश्रम और सरदार पटेल राष्ट्रीय स्मारक अहमदाबाद ज़रुर जाना चाहिए। हर चीज़ को विवादित करने के आदी ये चंद लोग शायद अपनी घिनौनी साज़िशों और संकीर्ण मानसिकता से बाहर आ सकें?
हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें इन पवित्र स्थलों के दर्शन का सुअवसर मिला। अवकाश का भरपूर लाभ उठाया और गहन अध्ययन में पूरा दिन बिताया।
यहां पुष्टि हुई कि नेहरू जी सरदार पटेल से उम्र में 14 साल छोटे थे। वे महात्मा गांधी के सबसे घनिष्ठतम और निकटतम साथी थे। कड़ा बोलते थे, खरा बोलते थे और एकदम सीधा बोलते थे। कोई लाग लपेट नहीं थी। कई बार महात्मा गांधी तक के लिए उन्होंने धर्मसंकट की स्थिति पैदा की थी। लेकिन कांग्रेस संगठन के भीतर यह धारणा एक अकाट्य सच्चाई के रूप में प्रचलित थी कि जो सरदार ने कह दिया, गांधी वही करेंगे। और यह भी कि यदि गांधीजी ने कुछ कह दिया, तो सरदार उस पर अपनी प्रकट आपत्ति दर्ज करते हुए भी उसे मान ही लेंगे। गांधीजी के प्रति पटेल का भाव इतनी आत्मीयता का था कि वे गांधीजी से मज़ाक भी कर सकते थे। वे गांधीजी से नाराज़ भी हो सकते थे। लेकिन दोनो एक दूसरे की सेवा और देखभाल करने में भी सबसे आगे थे। इतना कि यरवदा जेल में एक साथ रहने के दौरान एक बार गांधी अस्वस्थ हुए और इस बारे में महात्मा गांधी ने लिखा है कि उस दौरान पटेल ने गांधीजी की ऐसी देखभाल की जैसी एक मां अपने बच्चे के लिए करती है। ऐसे ही गांधी जी ने पटेल को अपने साथ रखने की मांग की थी,जब पटेल बीमार थे। ताकि गांधी जी उनकी देखभाल कर सकें।
नेहरू जी हमेशा ही सरदार पटेल को अपना वरिष्ठ सहयोगी और बड़ा भाई जैसा मानते रहे। हर मुश्किल की घड़ी में नेहरू ने सरदार से मार्गदर्शन लिया और उनसे संगठन चलाने का तौर-तरीका सीखा। भारतीय राष्ट्र के निर्माण में महात्मा गांधी के बाद दोनों की भूमिका दो हाथों, पैरों या दो आंखों जैसी थी। दोनों एक-दूसरे के पूरक थे। नेहरू आदर्शों, विचारों और वैश्विक विज़न वाले व्यक्ति थे, जबकि सरदार पटेल कांग्रेस संगठन और देश की आंतरिक व्यवस्था को चलाने वाले कर्मयोगी थे।
महात्मा गांधी ने बहुत सोच-समझकर नेहरू को घोषित रूप से अपना उत्तराधिकारी बताया था। कारण कि एक तो पटेल उम्रदराज़ हो चुके थे, अस्वस्थ रहते थे और लंबी यात्राओं से बचते थे और दूसरा कि एक नवीन राष्ट्र को एक कठिन वैश्विक परिदृश्य में अपना स्थान बनाने के लिए नेहरू जैसा ही एक ऐसा नेतृत्व चाहिए था। अंतरिम सरकार में दोनों की भूमिका भी एकदम वैसी ही रही। नेहरू और पटेल दोनों एक-दूसरे के पूरक के तौर पर देशहित को ध्यान में रखकर काम करते रहे। एक ने विदेश मंत्रालय तो दूसरे ने गृह मंत्रालय की बागडोर अपने हाथों में ली। भारत की तत्कालीन आंतरिक परिस्थितियों में सरदार पटेल ने जिस प्रकार की भूमिका निभाई, वैसा शायद ही कोई और निभा सकता था।
वास्तव में सरदार अपनी व्यंग्योक्तियों के लिए मशहूर थे और एक बार नेहरू उसका शिकार हो गए। उस कटाक्ष की बात जब किसी ने नेहरू को सुनाई तो नेहरू ने अपने उस मित्र को लगभग डांटते हुए कहा, ‘इसमें कौन सी बड़ी बात हो गई! आखिरकार वे हमारे बड़े भाई जैसे हैं, उन्हें हमपर व्यंग्य करने का पूरा अधिकार है। वे हमारे अभिभावक हैं.’
जिन चार पांच वर्षीय अबोध राष्ट्रवादियों के मन में नेहरू और पटेल के आपसी संबंधों को लेकर तमाम तरह की भ्रांतियां मौज़ूद हैं, उन्हें 1949 में नेहरू के 60वें जन्मदिन के उपलक्ष्य में लिखा गया सरदार पटेल का संदेश पढ़ना चाहिए। पटेल ने इसमें लिखा था, ‘कई तरह के कार्यों में एक साथ संलग्न रहने और एक-दूसरे को इतने अंतरंग रूप से जानने की वजह से स्वाभाविक रूप से हमारे बीच का आपसी स्नेह साल-दर-साल बढ़ता गया है। लोगों के लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल होगा कि जब हमें एक-दूसरे से दूर होना पड़ता है और समस्याओं को सुलझाने के लिए हम एक-दूसरे से सलाह-मशविरा नहीं कर पाने की स्थिति में होते हैं, तो हम दोनों को एक-दूसरे कमी कितनी खलती है। इस पारिवारिकता, नज़दीकी, अंतरंगता और भ्रातृवत स्नेह की वजह से उनकी उपलब्धियों का लेखा-जोखा करना और सार्वजनिक प्रशंसा करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। लेकिन फिर भी, राष्ट्र के प्यारे आदर्श, जनता के नेता, देश के प्रधानमंत्री और आमजनों के नायक के रूप में उनकी महान उपलब्धियां एक खुली किताब जैसी हैं.’
सरदार पटेल ने आगे लिखा, ‘...जवाहरलाल उच्च स्तर के आदर्शों के धनी हैं, जीवन में सौंदर्य और कला के पुजारी हैं। उनमें दूसरों को मंत्रमुग्ध और प्रभावित करने की अपार क्षमता है। वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो दुनिया के अग्रणी लोगों के किसी भी समूह में अलग से पहचान लिए जाएंगे ...उनकी सच्ची दृढ़प्रतिज्ञता, उनके दृष्टिकोण की व्यापकता, उनके विज़न की सुस्पष्टता और उनकी भावनाओं की शुद्धता— ये सब कुछ ऐसी चीज़े हैं जिसकी वजह से उन्हें देश और दुनिया के करोड़ों लोगों का सम्मान मिला है. ...इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि स्वतंत्रता की अल्लसुबह के धुंधलके उजास में वे हमारे प्रकाशमान नेतृत्व बनें। और जब भारत में एक के बाद एक संकट उत्पन्न हो रहा हो, तो हमारी आस्था को क़ायम रखनेवाले और हमारे सेनानायक के रूप में हमें नेतृत्व प्रदान करें।
मुझसे बेहतर इस बात को कोई नहीं समझ सकता कि हमारे अस्तित्व के इन दो कठिन वर्षों में उन्होंने देश के लिए कितनी मेहनत की है। देश के प्रति अपनी व्यापक ज़िम्मेदारियों के निर्वहन और अपनी चिंताओं के चलते इन दो सालों में मैंने उन्हें तेज़ी से बूढ़ा होते हुए देखा है।’
ऐसी भावना थी सरदार पटेल और नेहरू की एक-दूसरे के प्रति। आज लोग सरदार पटेल और जवाहर लाल नेहरू को एक-दूसरे के ख़िलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। इन्हें देशद्रोही ही कहा जा सकता है।
लेकिन सच्चाई तो यह है कि गांधीजी की पाठशाला में अहिंसा, सत्याग्रह, त्याग, सादगी और सर्वधर्म - सद्भाव का आजीवन पाठ सीखकर निकले ये लोग देश और समाज के हित को अपने मतभेदों से ऊपर रखते थे। मतभेद कहां नहीं होता? दो सबसे अच्छे मित्रों के बीच भी मतभेद होता है। पति-पत्नी के बीच मतभेद होता है। प्रेमियों और प्रेमिकाओं के बीच होता है।
लंबे सार्वजनिक जीवन में अपना योगदान दे रहे किन्हीं भी दो विचारवान लोगों के बीच तो स्वस्थ वैचारिक मतभेद आख़िरकार लोकतांत्रिक समाज और शासन के लिए अच्छा ही होता है। इससे न केवल संबंधित व्यक्तियों का वैचारिक विकास होता रहता है, बल्कि जनता का भी प्रबोधन होता है, उसमें सोचने-समझने की शक्ति जागृत होती है।
बड़ी-बड़ी मूर्तियां लगाकर हम इन महान नेताओं के इंसानी क़द की थाह नहीं पा पाएंगे। आज हमारा पैमाना ही छोटा होता जा रहा है। सोचने-समझने का स्तर संकीर्ण होता जा रहा है। भाषा और संप्रेषण के स्तर पर हम उच्छृंखल होते जा रहे हैं।
जाति, संप्रदाय, विचारधारा और दल के स्तर पर इस क़दर बंटते जा रहे हैं मानो हम मानवीय एकता की जगह अधिक से अधिक विखंडन की ओर बढ़ना चाहते हों। और फिर हम इन्हीं संकीर्ण पैमानों से अतीत की महान शख्सियतों को नापने लगते हैं।
तीनों महापुरुषों का अगाध प्रेम और आपसी विश्वास इस देश की बहुमूल्य अमानत है। इसमें ख़यानत करने वाला निसंदेह देश का दुश्मन है।
मूर्तियां किसकी कब तक क़ायम रही हैं? क़ायम तो विचार रहते हैं, उदात्त मानवीय विचार। मूर्ति चाहे किसी की हो, मूर्ति-स्थापना की होड़ प्राय: वैचारिक शून्यता और नैतिक खोखलेपन को छिपाने के लिए ही होती है।
काश हम इस सच को समझ सकें और आत्मसात कर सकें?
नेहरू जी को सच्ची श्रृध्दांजलि यही होगी कि हम सर्वधर्म समभाव के साथ धर्म निरपेक्ष भारत के अस्तित्व की रक्षा करें।
सैयद शहनशाह हैदर आब्दी
समाजवादी चिंतक - झांसी।
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