पर्यावरण का सबसे बडा मित्र मनुष्य
( हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक )
पर्यावरण
कहे या पंचतत्व मतलब पानी आग, हवा, आसमान और जमीन। यही संसार और जीवन का
मूलाधार है। इसी में हम जन्म लेते है और विलीन हो जाते है। यह स्वच्छ तो हम
स्वस्थ नहीं तो सब नष्ट। बदतर हालात नष्ट-भ्रष्ट की ओर ही ईशारा कर रहे
है। लिहाजा, पर्यावरण प्रदूषण वायु, जल एवं स्थल की भौतिक, रासायनिक और
जैविक विशेषताओं का वह अवांछनीय परिवर्तन हैं, जो मानव एवं अन्य जन्तुओं,
पौधों व भौतिक सामग्री के लिए आवश्यक पदार्थो को किसी न किसी रूप में हानि
पहुंचाता हैं। मानव ने अपनी सुविधा के लिए जिन पदार्थो को बनाया व उपयोग
किया वे ही आज पर्यावरण के सामने सुरसा की तरह मुंह खोले खडे हैं। ऐसे
पदार्थ जो पर्यावरण को प्रदूषित करते हैं प्रदूषक कहलाते हैं। विभिन्न
प्रदूषक मृदा से पौधों में व पौधों से खाद्य श्रृंखला में होते हुए
जीवधारियों के शरीर में पहुंच जाते हैं।
बहराल,
जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ सफाई की समस्या बढी हैं। वाहित मल मूत्र तथा
कारखानों के अपषिष्ट के रूप में निकले औद्योगिक व रासायनिक कचरे के तेजी से
बढने के कारण जल, वायु व पृथ्वी भी प्रदूषण की चपेट में आ गये है। आज
विकसित व विकासशील दोनों प्रकार के देश प्रदूषण से पीडित हैं। इन देशों के
क्रियाकलापों से उत्पन्न वैश्विक पर्यावरणीय समस्याओं का विश्व के सभी
देशों को सामना करने के साथ-साथ उसके परिणामों को भुगतना पड रहा हैं। बरबस
पर्यावरण का सबसे बडा दुश्मन मनुष्य हैं। भ्रांति को तोडते हुए मनुष्य को
पर्यावरण का सबसे बडा मित्र बनना पडेगा।
अलबत्ता
विकास के साथ मनुष्य की जीवन शैली में परिवर्तन आता गया जिससे ऊर्जा
अपव्यय, संसाधनों का दोहन व पर्यावरणी प्रदूषण में वृद्धि होते ही गई जो
अविरल जारी हैं। जब पृथ्वी पर जीवन का प्रादुर्भाव हुआ तब प्रकृति में एक
संतुलन बना हुआ था। वायु शुद्ध थी, जल स्वच्छ था और धरती उपजाऊ थी। वृद्धि व
क्षय का प्राकृतिक क्रम था और ऋतुओं का भी एक नियमबद्ध चक्र था। जनसंख्या
बढती गई, मनुष्य का कार्यक्षेत्र भी बढता गया और उसी के साथ प्रारंभ हुआ
प्रदूषण, क्योंकि मनुष्य कम समय में बहुत सारी वस्तुएं बहुत अधिक मात्रा
में बनाना चाहता था। जैसे-जैसे औद्योगिक क्रांति तेज होती गई वैसे-वैसे
वनों का विनाश, ऊर्जा के पारम्पारिक स्रोतों का दोहन भी चरम पर पहुंचता
गया।
इससे उत्पन्न समस्याएं
उपेक्षित ही रहीं जिसका परिणाम आज संपूर्ण विश्व के सामने हैं। कल कारखानों
व मशनीकरण के इस दौर ने मनुष्य की जीवन शैली को पूर्ण रूपेण बदल डाला।
भोग-विलासिता, फैशन व व्यसन व भौतिकवादी सोच ने प्रत्येक स्तर पर अपना
प्रभाव दिखाया चाहे वो भौतिक पर्यावरण हो, सामाजिक मूल्य हो अथवा प्राकृतिक
संतुलन कोई भी क्षेत्र इसके कृ-प्रभावों से अछूता नहीं रहा। प्राचीनकाल
में जीवन शैली व सामान्य क्रियाकलापों की तुलना यदि आधुनिक समाज से करें तो
भारी बदलाव परिलच्छित होते नजर आता हैं।
प्रत्युत,
आधुनिक समाज की जीवन शैली में आए बदलाव से ग्रामीण व शहरी दोनों वर्ग
प्रभावित हुए हैं। मनुष्य की स्वावलम्बी प्रवत्ति कम हुई हैं, वह मशीनों पर
आश्रित होता जा रहा है। नैतिक व सामाजिक मूल्यों में कमी आती जा रही हैं।
ऊर्जा के प्रत्येक स्रोत व स्वरूप का अत्यधिक दोहन हो रहा हैं। मनुष्य की
आवश्कताओं में वृद्धि व प्रतिपूर्ति के प्रयासों में पर्यावरण प्रदूषण बढता
जा रहा हैं। संसाधनों के अनुचित दोहन, भौतिकवादी प्रवृत्ति के प्रतिकूल
परिणाम-सूखा, अल्पवृष्टि, भूमिगत जल स्तर में कमी, ताप वृद्धि आदि वर्तमान
युग की प्रमुख समस्याएं बन गई हैं।
दरअसल
अनादिकाल से प्रकृति एवं मानव के बीच घनिष्ठ संबंध रहा हैं। आदिमानव का
जीवन पूर्णतः प्रकृति पर निर्भर था, उसकी आवश्कताएं बहुत ही सीमित थी जिसके
कारण मनुष्य एवं प्रकृति के बीच अच्छा सामन्जस्य था। जनसंख्या वृद्धि के
साथ-साथ मनुष्यों ने अपनी आवश्कताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों
का दोहन प्रारंभ कर दिया। परिणाम स्वरूप मनुष्य व प्रकृति का सामन्जस्य
गडबडाने लगा हैं। अपने जीवन को अधिक सुविधाजनक बनाने के लिए मनुष्य ने
पर्यावरण को दूषित किया हैं। पर्यावरण प्रदूषण के कारण पृथ्वी के समस्त
जीवधारियों का जीवन संकट में पड गया हैं।
पुनरूत्थान,
हम सभी को यह प्रयास रहना चाहिए कि हम प्रदूषण रहित प्रकृति अपनी आने वाली
पीढी को दे सकें । प्रकृति को सहेजने व संरक्षित करने के लिए सिर्फ प्रयास
ही काफी नहीं होंगे, बल्कि हमें वायुमण्डल व वसुन्धरा से उतना ही लेना
होगा जितना हम उसे मित्रवत वापस कर सकें। अत: प्रकृति की रक्षा से जीवन की
सुरक्षा मुक्कमल होगी।
हेमेन्द्र क्षीरसागर, लेखक व विचारक
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